Jaisalmer: ‘न ही फर्क एक तिनके का भी, न ही खून का रंग कुछ और है, बस फर्क ये कि किसी को लोग हिंदू, तो किसी को मुसलमान कहते हैं’….ये लाइनें पढ़ने में जितनी ही खूबसूरत और दिल को छू जाने वाली लगती हैं, उससे कहीं बढ़कर यह एकता की हकीकत को भी चीख-चीख कर कहती हैं बशर्ते इन्हें पढ़ने वाला इंसान होना चाहिए.
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कभी सोचा है दो आंखें, दो कान, एक नाक, एक मुंह, दो हाथ और दो पैर… सब बिल्कुल एक जैसा, फिर कैसे इंसानों ने बंटवारा कर दिया कि वह हिंदू है, वह मुस्लिम है, वह सिख है और वह ईसाई है. खैर..बंटवारा किया तो किया पर ऐसी नफरतें घोली कि लोग एक-दूसरे की वेशभूषा देखकर लोग जाति-धर्म का हिसाब लगाते हैं.
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आप सभी जानते होंगे कि हिंदू धर्म में गाय को पालना किसी पुण्य से कम नहीं माना जाता है. कहते हैं गौ सेवा से बढ़कर कोई और सेवा नहीं है. गौ सेवा करने वाले को स्वर्ग प्राप्त होता है पर हम आज आपके ऐसी कहानी लेकर आए हैं, जिसमें गौ सेवा करके थार के खान चाचा को हज जैसी पवित्र यात्रा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ. ह्यूमंस ऑफ बॉम्बे में छपी खान चाचा की इस कहानी को पढ़कर आपको एहसास होगा कि जाति-धर्म से बढ़कर कुछ है तो वह इंसानियत है, जिसका फल पाकर खुद खान चाचा ने बीफ तक खाना छोड़ दिया.
चलिए बढ़ते हैं राजस्थान के थार की उस कहानी की ओर, जिसको पढ़कर न केवल आपके दिलों से हिंदू-मुस्लिम की दीवार गिरेगी बल्कि अगर आप किसी के लिए कुछ करना चाहते हैं, अपनी कृतज्ञता दिखाना चाहते हैं तो उसके लिए भी एक नई सीख मिलेगी. खान चाचा ने खुद नहीं सोचा था कि उनकी जिंदगी की डगमगाती नाव को बेतहाशा खुशियों का सहारा मिलेगा.
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ऐसे गौशाला पहुंचे खान चाचा
जिंदगी के मुसीबत भरे पन्नों को याद करते हुए खान चाचा बताते हैं कि साल 2000 की बात है. दिन बुरे थे. कोई नौकरी नहीं थी. मैं नौकरी की तलाश में जैसलमेर गया था. उन दिनों भी आज की तरह ही किल्लत थी नौकरी की. एक साल तक भटकता रहा, कोई रोजगार नहीं मिला. अचानक एक दिन एक प्रचार देखा. मुझे पता चला कि एक गौशाला को एक सहायक की तलाश है, तो मैंने आव देखा न ताव तुरंत आवेदन करने के मन बना लिया. मेरा इधर आवेदन करना था कि उधर से मुझे तुरंत रख लिया गया. मतलब मेरी नौकरी पक्की हो गई. हालांकि मुझे मवेशियों के साथ काम करने का कोई खास अनुभव नहीं था पर हैरानी तो इस बात की थी कि उन्होंने भी मुझे बिना किसी अनुभव के बिना ही रख लिया था और इस तरह मैं उस गौशाला में काम करने वाला ‘पहला मुसलमान’ बन गया था.
गायें बन गईं खान चाचा का परिवार
कहानी सुनाते हुए खान चाचा कहते हैं कि गौशाला में काम करते-करते 2-3 साल गुजरे पर मैंने कभी यह नहीं महसूस किया कि मैं वहां का हिस्सा नहीं हूं. हम सभी ने भाइयों की तरह साथ काम किया. हर रोज सुबह उठकर गायों को रोटी खिलाना और फिर उनको दुहना, यह सब मेरी दिनचर्या बन गई थी. शुरुआती दौर में मैं यह सारा काम केवल कमाई के तौर पर करता था. मेरी सैलरी केवल 1500 थी और मुझे 11 लोगों का पेट पालना होता था पर जैसे-जैसे दिन गुजरते गए, गौशाला की गायें मेरा परिवार सी बन गई थीं. हर रोज उनके साथ वक्त बिताना मुझे बहुत अच्छा लगता था.
मरने से पहले एक बार तो हज जाना ही जाना था
जिंदगी की गाड़ी चल पड़ी तो बस चलती रही. खान चाचा ने गायों की सेवा करके अपने बच्चों को पढ़ाया-लिखाया. सब अच्छी-अच्छी पोस्ट पर नौकरी करने लगे. फिर चाचा के बच्चों ने शादी कर ली और बाहर चले गए. 50 की उम्र का पड़ाव भी आ गया था. चाचा बताते हैं कि अब मुझे लगा कि चलो सारी जिम्मेदारियां पूरी हो गईं. अब मुझे अपनी हज यात्रा के लिए बचत करनी शुरू कर देनी चाहिए. पवित्र तीर्थयात्रा हज का जिक्र करके हुए खान चाचा कहते हैं कि ‘मरने से पहले एक बार तो हज जाना ही जाना था.’
फट पड़े मुसीबतों के बादल
आपने वह लाइन तो सुनी ही होगी -समय परिवर्तनशील है मतलब अगर समय अच्छा चल रहा है तो आगे चलकर बुरा समय भी आता है. अगर आपके बुरे दिन चल रहे हैं तो घबराइए मत, अच्छे दिन भी आते हैं. ऐसा ही हुआ खान चाचा के साथ. साल 2019 में खान चाचा ने अपने छोटे बेटे को एक हादसे में खो दिया. उसके दो छोटे बच्चों की जिम्मेदारी खान चाचा पर आ गई थी. फिर क्या… चाचा ने अपनी सारी बचत दोनों की पढ़ाई में लगा दी. आंसुओं से भरी आंखों से चाचा बताते हैं कि मैं जानता था कि मैं सही काम कर रहा हूं. मैं यह भी जानता था कि अपने बढ़ते खर्चों के साथ, मैं कभी हज पर नहीं जा सकूंगा.
गौशाला के भाइयों से बांटा अपना दुख
मैंने अपने इस दुख को अपने गौशाला वाले भाइयों के साथ बांटा. कहते हैं कि कई जब ऊपरवाला दुख देता है तो उससे उबरने की शक्ति और रास्ता दोनों ही दिखाता है. अगले दिन गौशाला में खाना चाचा को ऐसा तोहफा मिला, जिसकी वो कल्पना भी नहीं कर सकते थे. उनके गौशाला के हिंदू भाइयों ने उनकी हज यात्रा के लिए तीस हजार रुपये दिए थे और कहा कि खान चाचा, ये हमारी तरफ से आपके लिए. ये वो लम्हा था, जब खान चाचा की आंखें आंसुओं के सैलाब से छलछला उठीं थी.
चाचा ने छोड़ दिया बीफ खाना
खान चाचा चमकती आंखों से बताते हैं कि आखिरकार एक महीने बाद हज जाने की ख्वाहिश पूरी हुई. जब मैं वहां नमाज पढ़ रहा था तो मेरे अंदर एक अजीब सी आवाज उठी और मैंने सोचा कि ‘मुझे गोमांस खाना बंद कर देना चाहिए.’ यह मेरे हिंदू भाइयों के लिए श्रद्धा अर्पित करने का तरीका था, जिसने मुझे हज पर भेजकर मेरे विश्वास का सम्मान करने में मदद की.
धर्म के तर्क से बाहर निकलिए
खान चाचा बताते हैं कि उस दिन से मैंने बीफ नहीं खाया है. कुछ साल भी बीत गए हैं पर तब से मैं आज भी अपना काम शुरू करने से पहले गायों के लिए प्रार्थना करता हूं. कभी-कभी लोग पूछते हैं कि ‘आपको दूसरों के लिए अपने भोजन की आदतों को क्यों बदलना पड़ा?’ तो मैं उनसे बस एक बात कहता हूं कि इतने सालों में इन लोगों ने मुझे वैसे ही स्वीकार किया, जैसा मैं हूं. उन्होंने अपनी खुशी से मुझे हज भेजा और उनके लिए कुछ करना, अब मेरा सौभाग्य है. खान चाचा ने कहा कि यह मेरा आभार दिखाने का तरीका है और जिस मिनट आप ‘धर्म’ तर्क से बाहर निकलेंगे, सब कुछ आपके समझ में आने लगेगा. खान चाचा की ये लाइनें शायद ही लोगों को समझ आएं पर सच तो यह है कि
न हिंदू बुरा है, न मुसलमान बुरा है,
बुराई पर जो उतर आए, वह इंसान बुरा है…