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Film On 1984 Anti-Sikh Riots: 1984 में हुए सिख विरोधी दंगे देश के इतिहास में शर्मनाक अध्याय हैं. जोगी में दंगे कराने वाला नेता (कुमुद मिश्रा) कहता है कि मैं भले ही ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं लेकिन इतना तो जानता हूं कि हर एक्शन का 100 परसेंट रिएक्शन होता है. जब इन दंगों में पूरी दिल्ली जल रही होती है तो वहां त्रिलोकपुरी के कुछ सिख परिवार सुरक्षा के लिए एक गुरुद्वारे में शरण लेते हैं. बाहर नेता और पुलिस के छोटे-बड़े अफसर और कर्मचारी, दंगाइयों को पेट्रोल, डीजल, तलवारें तथा अन्य हथियार उपलब्ध करा रहे होते हैं. अगला चुनाव लड़ने के लिए नेता दंगाइयों को बिरयानी खिलाता है और उन्हें सिखों के कत्ले-आम के वास्ते सड़कों पर उतारता है. इन सबके बीच है, जोगी (दिलजीत दोसांझ). जो अपने पुलिसवाले दोस्त रविंदर (जीशान अयूब) के साथ मिलकर कॉलोनी के तमाम सिख परिवारों को बचाने के लिए अपनी जान पर खेल जाता है.

पहले भी यही हुआ था जफर के साथ
निर्देशक अली अब्बास जफर की फिल्म जोगी ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स पर रिलीज हुई है. जफर फार्मूला फिल्मों के डायरेक्टर हैं और उन्हें अपनी बात कहने के लिए सितारों की जरूरत पड़ती है. रणवीर सिंह से लेकर सलमान खान तक का उन्हें समय-समय पर सहारा मिला है, लेकिन जब जफर को बॉक्स ऑफिस के सितारे नहीं मिलते तो वह कमजोर पड़ जाते हैं क्योंकि उनके कंटेंट में बात नहीं होती. खाली पीली (ईशान खट्टर-अनन्या पांडे) में यही हुआ था और जोगी में भी वही दोहराव है. जब आपको लगता है कि शायद जफर कुछ अलग या विशेष कहने की कोशिश करेंगे, अचानक वह फिल्मी फार्मूले पर छलांग लगा देते हैं. जोगी जब लोगों की जान बचाने की कोशिशों में लगा रहता है, तभी उसके सबसे बड़े दुश्मन दिख रहे पुलिसवाले की बहन से उसकी लवस्टोरी सामने आ जाती है. एक बेहद चलताऊ फ्लैशबैक के साथ.

जैसे लगाते हैं गाड़ी को धक्का
जोगी दिल दहलाते हुए शुरू होती है और शुरुआती कुछ मिनटों का दंगाई माहौल दर्शक को बांधे रहता है. जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के विरुद्ध दंगे शुरू होते हैं तो चारों तरफ आगजनी-हत्या के दृश्य हिला देते हैं. इन दृश्यों को बिल्कुल पेशेवर अंदाज में रचा गया है और ये सांप्रदायिक राजनीति का पर्दाफाश भी करते हैं, जब नेता कहता है कि तीन दिनों के लिए पुलिसवालों को थाने में कोई फोन रिसीव नहीं करना है क्योंकि मार-काट के आदेश ऊपर से आए हैं. तीन दिन तक सब माफ है. तीन दिन बाद दिल्ली सेना के हवाले हो जाएगी. लेकिन जब आगे की घटनाओं के लिए सारा मंच तैयार हो जाता है, तो कहानी का डीजल खत्म हो जाता है. वह हिचकोले खाती गाड़ी की तरह रुक-रुक कर आगे बढ़ती है. लेखक-निर्देशक धक्का लगाकर उसे आगे बढ़ाते हैं. जो फिल्म वास्तविक अंदाज में शुरू हुई थी, वह कमजोर काल्पनिकता के साथ खत्म होती है. निराश करती है. देखने वाले नहीं कह पाते कि जोगी… हम तो लुट गए तेरे प्यार में.

दिलजीत और कुमुद मिश्रा जीतते हैं दिल
नेटफ्लिक्स को वाकई बहुत गंभीरता से देखने की जरूरत है कि जो बड़े नाम उसके पास आ रहे हैं, उनकी दुकान के पकवान में कितना स्वाद है. सिर्फ नाम देखने से नेटफ्लिक्स का नाम ही डूबने का खतरा है. काम देखना जरूरी है. अली अब्बास जफर को आप सुल्तान और टाइगर जिंदा है जैसी फार्मूला फिल्मों से जानते हैं, जिन्हें आज आप शायद पूरा भी देख नहीं पाएंगे. जोगी की भी वही स्थिति है. अंत तक पहुंचने के लिए आपको बड़े धीरज की जरूरत पड़ती है. हां, यहां दिलजीत दोसांझ ने अच्छा अभिनय किया है और वह पूरी कोशिश करते हैं कि अपने किरदार से कहानी के सिरों को पकड़ में रखें. मगर ऐसा हो नहीं पाता. अव्वल तो कहानी के सिरे शुरुआती कुछ मिनटों बाद ढीले पड़ जाते हैं और फिर बीच-बीच में तो वे पूरी तरह से उनके हाथों से निकल जाते हैं. एक और एक्टर जो यहां अपनी उपस्थिति सशक्त ढंग से दर्ज कराता है, वह हैं: कुमुद मिश्रा. काइयां और हत्यारे नेता के रूप में उन्होंने अपने अधपके किरदार को भी पूरी मजबूती से निभाया है. वह आपको उस सीमा तक ले आते हैं, जहां आप इस किरदार से नफरत कर सकें. अगर सिख-विरोधी दंगों की पर आप कोई फिल्म देखना चाहे हैं तो जोगी उन दिनों की कुछ-कुछ खबर देती है. मगर बात में यहां गहराई नहीं है. बाकी सब ठीक-ठाक है.

निर्देशकः अली अब्बास जफर
सितारेः दिलजीत दोसांझ, कुमुद मिश्रा, जीशान अयूब, हितेन तेजवानी, अमायरा दस्तूर
रेटिंग **

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